मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की “सुशासन” वाली छवि को एमडीडीए अधिकारी ने पहुंचाई ठेस, पढ़िए पूरी खबर

यदि यह कृत्य भ्रष्टाचार या रिश्वत के उद्देश्य से किया गया हो, तो आरोपी पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 के तहत भी कार्रवाई संभव है।

देहरादून। एक ओर उत्तराखंड प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रहा है—कहीं बादल फटने से तबाही तो कहीं सड़कें ध्वस्त—वहीं दूसरी ओर मसूरी-देहरादून विकास प्राधिकरण (एमडीडीए) में बैठे एक अधिकारी की कार्यशैली ने शासन-प्रशासन की पारदर्शिता पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए हैं। एमडीडीए के संयुक्त सचिव (Joint Secretary) गौरव चटवाल, PCS पर नोटशीट में तिथि हेराफेरी, फर्जी आदेश जारी करने का मामला सामने आया है।

आरटीआई के माध्यम से सामने आए दस्तावेजों में यह स्पष्ट हुआ है कि अधिकारी ने 26 सितंबर 2025 को एक प्रकरण की सुनवाई की तिथि निर्धारित की थी, और विपक्षी पक्ष द्वारा जमा किए गए दस्तावेजों को प्राप्ति के बावजूद नोटशीट पर दर्ज नहीं किया। इसके बावजूद अगले ही दिन, 27 सितंबर 2025, उन्हीं दस्तावेजों का अवलोकन कर उन पर हस्ताक्षर भी कर दिए तथा क्षेत्रीय अभियंता राजेंद्र बहुगुणा को “स्थल निरीक्षण कर आख्या प्रस्तुत करने” के निर्देश जारी किए।

पहली सुनवाई 1 अक्टूबर 2025 को रखी गई थी, लेकिन उस दिन सार्वजनिक अवकाश होने के कारण तिथि बढ़ाकर 17 अक्टूबर 2025 कर दी गई। तथापि, नोटशीट में बाद में कटिंग और ओवरराइटिंग करके तिथि बदल दी गई और 6 अक्टूबर 2025 कर दी गई।

और फिर—यहीं से मामला संदिग्ध हो गया। नोटशीट में दर्ज अनुसार अगली सुनवाई 17 अक्टूबर 2025 नियत थी, परंतु अभी वह तिथि आई भी नहीं थी कि गौरव चटवाल ने 13 अक्टूबर 2025 को ही आदेश जारी कर दिया, जिसमें विपक्षी को अनुपस्थित दर्शाते हुए सीलिंग का आदेश जारी कर दिया गया।
आरटीआई से प्राप्त रिकॉर्ड में यह भी स्पष्ट है कि संबंधित दस्तावेज 26 सितंबर 2025 को ही दाखिल हो चुके थे और उन पर अधिकारी के हस्ताक्षर भी मौजूद हैं।
सूत्रों के अनुसार, यह मामला एक एयर राइफल शूटिंग एकेडमी से जुड़ा है, जो 2015 से वैध अनुमति और संबद्धता के साथ संचालित है। इस एकेडमी के विद्यार्थी राज्य स्तरीय प्रतियोगिताओं में स्वर्ण पदक जीत चुके हैं और राष्ट्रीय स्तर की तैयारी कर रहे हैं। ऐसे में इस प्रकार की जल्दबाज़ी में की गई कार्रवाई ने न केवल एकेडमी के भविष्य पर संकट खड़ा कर दिया है, बल्कि सरकार की “सुशासन” की छवि पर भी सवाल उठाए हैं। क्या किसी अधिकारी को यह अधिकार है कि वह निर्धारित सुनवाई तिथि आने से पहले ही निर्णय या आदेश पारित कर दे?

 

कानूनी रूप से यह कृत्य न्यायिक प्रक्रिया के विरुद्ध और “फेयर हियरिंग” के सिद्धांत का उल्लंघन माना जाता है।

क्या कहता है भारतीय क़ानून:

भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 218 और भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 256 के तहत यदि कोई सरकारी अधिकारी जानबूझकर रिकॉर्ड में गलत प्रविष्टि करता है, तो उसे तीन वर्ष तक की सज़ा या जुर्माना या दोनों हो सकते हैं।

IPC धारा 466 (लोक अभिलेख में जालसाज़ी) के तहत सात वर्ष तक की सज़ा और जुर्माना हो सकता है।

IPC धारा 477 के अंतर्गत लोक दस्तावेज़ों के साथ धोखाधड़ी या फर्जीवाड़ा करने पर आजीवन कारावास तक की सज़ा का भी प्रावधान है।

यदि यह कृत्य भ्रष्टाचार या रिश्वत के उद्देश्य से किया गया हो, तो आरोपी पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 के तहत भी कार्रवाई संभव है।

Sheila Sebastian बनाम R. Jawaharaj (2018) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि यदि कोई अधिकारी किसी दस्तावेज़ में जानबूझकर गलत प्रविष्टि करता है या झूठा रिकॉर्ड तैयार करता है, तो वह “फर्जी दस्तावेज़” की श्रेणी में आता है और उस पर जालसाज़ी का मुकदमा बनता है।

जनता और सरकार की चिंता

जनता में यह चर्चा है कि जब एक अधिकारी “नोटशीट” में हेराफेरी कर आदेश पारित कर सकता है, तो आम नागरिकों के साथ क्या न्याय होगा?
स्थानीय नागरिकों और एकेडमी संचालकों का कहना है कि इस घटना ने मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की “सुशासन” वाली छवि को ठेस पहुंचाई है।

अब देखना यह होगा कि शासन इस मामले में क्या रुख अपनाता है—
क्या विभागीय जांच और कानूनी कार्रवाई की जाएगी या यह भी फाइलों में दबा दिया जाएगा?

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